Young Writers:ममता खरे “मधु” की रचना उलझने कैसे सुलझाऊं……

कविता-उलझन कैसे सुलझाऊँ
चीत्कार करती अभिलाषा,विकृतियाँ दे रही निराशा।
हर आहट विचलित उर करती,पल-पल मै घबराऊँ~ उलझन कैसे सुलझाऊँ।
बाहर बैठा समय का पंक्षी,निशदिन नाच नचाता है,
छलक-छलक संयम का प्याला,नैनन कोर भिगाता है।
मौन प्रतीक्षित उर को बोलो,कैसे धीर धराऊँ।
उलझन कैसे सुलझाऊँ~~~~।
फैल गयी है निशा घनेरी,चित चिंता की हेरा-फेरी,
अनबोले अनकहे क्षणों की,समृतियाँ करती बरजोरी।
अरमानों के कानन में मैं,नित नव बेल लगाऊँ।
उलझन कैसे सुलझाऊँ~~~~।
गहन वेदना सार नहीं है,थाह नहीं उपचार नहीं है,
स्वप्न अनेकों दिखलाता पर,करता क्यूँ साकार नहीं है।
अपने हिय के उद्गारों को,कब तक मैं समझाऊँ।
उलझन कैसे सुलझाऊँ
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ग़ज़ल
ख़ुद को कुछ तो झुका लिया होता,
प्यार देकर बुला लिया होता।
क्यूँ अँधेरा घिरा हुआ दिल में,
रौनके दिल बना लिया होता।
चाहता गर बना रहे रिश्ता,
ख़ार दिल के मिटा लिया होता।
मान जाती अगर मनाता वो,
काश उसने मना लिया होता।
‘मधु’ उदासी सदा डराती है,
ख़ौफ़ दिल के हटा लिया होता।

रचनाकार _ममता खरे ‘मधु’ (अध्यक्ष महिला प्रकोष्ठ साहित्य सृजन संस्था)
मोबाइल __. 6261404246